Tuesday 8 August 2017

औकात

ग़ज़ल

अंधियारों से जो डरती हो ऐसी कोई रात नहीं।
पीड़ा सहकर भी हँस लेना सबके बस की बात नहीं।।

मन का मालिक सुख-दुख सबकुछ बेमौसम अपनाता है।
धनवान भले हो कोई पर इतनी तो औकात नहीं।।

मन के सूखे आंगन में दो बूंदे बरसे आंसू की ।
कोई गैर कभी दे जाए ये ऐसी सौगात नहीं।।

मन को छलिया कहने वालों मन तो खुद को छलता है।
कोई अपना छल जाए तो और बड़ा आघात नहीं।।

मजहब की बातें जग में बस कड़वाहट फैलाती है।
तब मन सहता है जो पीड़ा उसकी कोई जात नहीं।।

लेखे आज नये नियमों से आय व्ययों  के कर डाले।
सब कुछ माप लिया है लेकिन सुख-दुख का अनुपात नहीं।।

रोज सियासत दिखलाती है सपनें सबको खुशहाली के।
खेल न जाने कैसा जिसमें शह तो है पर मात नहीं।।

मजबूर किया आज समय ने बेमतलब की चालों से।
घनघोर निराशा फैल रही बस में अब हालात नहीं।।

'प्रीत' घने पीड़ा के बादल मन के नभ पर छाये हैं।
बिन बादल के भी बरसे जो ऐसी तो बरसात नहीं।।

प्रीति सुराना

1 comment:

  1. सटीक व सुंदर अभिव्यक्ति !

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