Monday 18 September 2017

एक कटी पतंग सी मैं

एक कटी पतंग सी मैं

हाँ
एक कटी
छत विछत पतंग
खुश थी
मैं गिरी तुम्हारे ही आंगन में,...
अचानक तब्दील हुई खुशियां
तुम्हें हँसते देखकर आंसुओं में,...

हुई मैं आहत ये देखकर
जिन हाथों के भरोसे
अपनी डोर छोड़ रखी थी
वो हाथ मांजे की धार से
कट जाने के डर से
मांजा नहीं चकरी पकड़े हुए था,
जिसमें लिपटी हुई थी
मेरी जीवन डोर
जो तुमने कभी संभाली ही नहीं
हवा अनुकूल रही इसलिये उड़ती रही मैं,..
और मौसम के बदलते ही मेरा मिट जाना
मेरी नियति नहीं तुम्हारा विश्वासघात था,...

खैर!
मुझे चार कंधों में जाता देख
अनेक आँखे खुलेंगी
ये देखने के लिए कि
प्यार आँखों के होते हुए भी अपने अंधेपन के कारण
ये कभी नहीं देख पाता
विश्वास वहीं टूटता है जहाँ विश्वास होता है
विश्वासघात वहां संभव ही नहीं जहाँ विश्वास न हो,...

सुनो!
अब अंधविश्वास की
कोई नई कहानी मत गढ़ लेना
क्योंकि
विश्वास या तो होता है या नही होता,
इसका आंखों से कोई लेना देना नहीं,
रहने दो तुम,...
मन की बातें तुम्हारा मष्तिष्क नही समझेगा,..
जाओ
तुम्हारी चकरी के शेष मांजे को
इंतजार है एक नई पतंग का,...

प्रीति सुराना

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