Sunday 3 December 2017

नियति इस प्रेम की,...

तुम्हारा आक्रोश
पल-पल झलकाता है
तुम्हें नहीं चाहिए बंधन
चाहे प्रेम के ही क्यूं न हों,..

हर बार मेरा
सहमकर रो पड़ना,
बार-बार याद दिलाया जाना
मुझे मेरी लक्ष्मणरेखा,..

फिर भी
स्वीकार
सबकुछ
प्रेम में भय ही क्यों न हो,..

हाँ! मैं डरती हूँ तुमसे,
बहुत, बहुत ज्यादा,
पर करती हूं विश्वास
प्रेम से भी ज्यादा,...

फिर
नियति
इस प्रेम की
जो हो सो हो,... प्रीति सुराना

1 comment: