Saturday 27 January 2018

कभी-कभी

सुनो!

तुम ढेर सारे उपहार समेट लाते हो
अचानक,
फिर भी मन करता है कभी-कभी
तुम मुझे कुछ तब दो,
जब मैं चाहती हूं।

तुम अपने हिस्से की जिम्मेदारियां निभाकर
घर लौट आते हो,
फिर भी मन करता है कभी-कभी
तुम मेरे लिए घर लौट आओ तब,
जब मैं चाहती हूँ।

तुम देखना चाहते हो हमेशा
मुझे हँसते हुए,
फिर भी मन करता है कभी-कभी
तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर रोना,
जब मैं चाहती हूं।

तुम्हे चाहिये भूख लगने पर
अपनी पसंद का भोजन,
फिर भी मन करता है कभी-कभी
तुम मेरे साथ खाओ दो निवाले मेरी पसंद के,
जब मैं चाहती हूँ।

यूँ तो तुम बेहद प्यार करते हो मुझे
जब तुम चाहते हो,
फिर भी मन करता है कभी-कभी
मुझे सीने से लगा लो तुम,
जब मैं चाहती हूं।

तुम जब जूझते हो अनचाहे हालातों से
तब मुझ पर निकालते हो आक्रोश,
फिर भी मन करता है कभी-कभी
भीतर का सारा गुबार तुम पर तब निकाल दूँ,
जब मैं चाहती हूँ।

सबकुछ वही होता है जब-जैसा
तुम चाहते हो,
फिर भी मन करता है कभी-कभी
बिन कहे कुछ मेरे मन का हो जाए,
जब मैं चाहती हूँ।

मरना है चाहे एक ही बार पर
जैसा काल चाहे,
फिर भी मन करता है कभी-कभी
मुझे जीना है तुम्हारे साथ सिर्फ एक बार,
जैसा मैं चाहती हूँ।

प्रीति सुराना

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